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जैनतत्त्वादर्श तथा श्राद्धादि के करने से पितरों की नृन्ति का होना
भी अनेकांतिक है । क्योंकि बहुतों के श्राद्ध श्राद्ध का निषेध करने पर भी सन्तान नहीं होती, और
कितनेक श्राद्ध नहीं भी करते, तो भी तिन के गर्दभ, शूकर आदि की तरह संतान की वृद्धि देखते हैं। तिस वास्ते श्राद्धादि का विधान केवल मुग्ध जनों को विप्रतारण-ठगना मात्र ही है । जो पितर लोकांतर को प्राप्त हुए हैं, वे अपने शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार देव नरकादि गतियों में सुख दुःख भोग रहे हैं । जब ऐसा है, तो फिर पुत्रादि के दिये हुये पिंडों को वे क्योंकर भोगने की इच्छा कर सकते हैं ? तथा च युष्मद्यूथिनः पठतिः
मृतानामपि जंतूनां, श्राद्धं चेत्ततिकारणम् । तन्निर्वाणप्रदीपस्य, स्नेहः संवर्द्धयेच्छिखाम् ।।
* श्राप के साथियों ने भी कहा है-यदि श्राद्ध मरे हुए प्राणियों की प्रसन्नता का कारण हो सकता है, तो तैल को भी बुझे हुए दोपक की शिखा-लाट के बढ़ाने का कारण मानना चाहिये । तात्पर्य कि, जिस प्रकार बुझे हुए दीपक को तेल नहीं जला सकता, उसी प्रकार श्राद्ध भी परलोक गत पितरों की दृप्ति नहीं कर सकता । तथा माधवाचार्य प्रणीत सर्वदर्शनसंग्रह में संगृहोत इसश्लोक का उत्तरार्द्ध इस प्रकार है"गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम्"-अर्थात् मरे हुए प्राणियों की यदि श्राद्ध से तृप्ति हो, तो परदेश में जाने वालों को साथ में खाना ले जाने की कोई पावश्यकता नहीं। क्योंकि घर में श्राद्ध करने से वे