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चतुर्थ परिच्छेद
३७६ तथा श्राद्ध करने से उत्पन्न होने वाला पुण्य परलोक गत पितरों के पास कैसे चला जाता है ? क्योंकि वो पुण्य तो और ने करा है, तथा पुण्य जो है, सो जडरूप और गति रहित है। जे कर कहो कि उद्देश तो पितरों का है, परंतु पुण्य श्राद्ध करने वाले पुत्रादिकों को होता है। यह भी कहना ठीक नहीं क्योंकि पुत्रादि का इस पुण्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता, अर्थात् पुत्रादि के मन में यह वासना ही नहीं कि हम पुण्य करते हैं, और इस का फल हम को मिलेगा । तो बिना पुण्य की भावना से पुण्य फल होता नहीं है। इस वास्ते श्राद्ध करने का फल न तो पितरों को अरु न पुत्रादिकों को होता है, किंतु त्रिशंकु की तरह बीच में ही लटका रहता है। [अर्थात् जैसे वसिष्ठ ऋषि के शिष्यों के शाप से चंडालता को प्राप्त होने के बाद त्रिशंकु नाम का राजा, विश्वामित्र के द्वारा कराये जाने वाले यश के प्रभाव से जिस समय स्वर्ग को जाने लगा, और इन्द्र ने उसे स्वर्ग में आने नहीं दिया, तो उस समय वह स्वर्ग और पृथिवी के बीच में ही लटका रह गया । वैसे ही श्राद्ध से उत्पन्न होने वाले पुण्य का फल न तो पितरों को प्राप्त हो सव तृप्त हो जावेंगे । तथा यह श्लोक चार्वाक-नास्तिक मत के निरूपण में अनेक प्राचीन दार्शनिक प्रन्थों में संगृहीत हुआ है, परन्तु इस के मूल का कुछ पता नहीं चला है। ' * त्रिशंकु की कथा के लिये देखो वाल्मी० रा. कां० १ सर्ग ५८-६०