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जैनतत्त्वादर्श का पूर्व ही प्रतिषेध कर दिया है । चौथे का भी सम्भव नहीं, क्योंकि अशरीरी को काय वचन के व्यापार का सम्भव नहीं है । तथा ऐश्वर्य भी क्या ज्ञातपना है ? अथवा कापना है ? अथवा और कुछ है ? जेकर कहो कि ज्ञातपना है, तब क्या ज्ञातृत्वमात्र है ? अथवा सर्वज्ञातृत्व है ? श्राद्यपक्ष में ज्ञाता ही होवेगा, ईश्वर नहीं होवेगा । अस्मदादिक अन्य ज्ञाताओं की तरे। दूसरे पक्ष में भी इस को सर्वज्ञता होवेगी परन्तु सुगतादिवत् ईश्वरता नहीं। अथ जेकर कहोगे कि कर्तृत्व है, तब तो अनेक कार्य करने वाले कुम्भकारादिकों को भी ऐश्वर्य की प्रसक्ति होवेगी । तथा इच्छा प्रयत्नादि के विना और कोई भी वस्तु ईश्वर के ऐश्वर्य का निबंधनकारण नहीं है। __ एक और भी बात है । कि क्या ईश्वर की जगत् बनाने में यथारुचि प्रवृत्ति है ? वा कर्म के वश हो करके ? वा दया करके ? वा क्रीडा करके ? वा निग्रहानुग्राह करने के वास्ते ? वा स्वभाव से ? श्राद्य विकल्प में कदाचित् और तरें भी सृष्टि हो जावेगी, दूसरे पक्ष में ईश्वर की स्वतन्त्रता की हानि होवेगी। तीसरे पक्ष में सर्व जगत् सुखी ही करना था।
प्रतिवादी:- ईश्वर क्या करे ? जैसे जैसे जीवों ने कर्म करे हैं, तिन कर्मों के वश से ईश्वर तैसा तैसा दुःख सुख देता है ।