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जैनतरवादर्श
चारों को भिन्न भिन्न द्रव्य मानने से ठीक नहीं । क्योंकि परमाणु जो हैं, सो प्रयोग और विश्वसा करके पृथिवी आदिकों के रूप से परिणमते हुए भी अपने द्रव्य पन को नहीं त्यांगते हैं । तथा अतिप्रसंग होने से, अवस्था भेद करके द्रव्य का भेद मानना भी युक्त नहीं है । आकाश तथा काल को तो हमने भी द्रव्य माना है । दिशा जो है, सो आकाश का अव यवभूत है, इस वास्ते पृथक् द्रव्य नहीं । तथा आत्मा जो कि शरीर मात्र व्यापी और उपयोग लक्षण वाला है, तिस को हम भी द्रव्य मानते हैं । अरु जो द्रव्यमन है, सो पुद्गल द्रव्य के अन्तर्भूत है, तथा जो भावमन है, सो जीव का गुण होने से आत्मा के अन्तर्गत है । यद्यपि वैशेषिक कहते हैं, कि पृथिवी पृथिवीत्व के योग से पृथिवी है । परन्तु यह भी उन का कहना स्वप्रक्रिया मात्र ही है, क्योंकि पृथिवी से अन्य दूसरा कोई पृथिवीत्व - पृथिवीपना नहीं है, जिस के योग से पृथिवी पृथिवी होवे । अपि तु सर्व जो कुछ भी है, सो सामान्य विशेषात्मक है, अर्थात् नरसिंहाकारवत् उभय स्वभाव है । तथा चोकम्:--
नान्वयः स हि भेदत्वान्न, भेदोऽन्वयवृत्तित्ः । मृद्भेदद्वयसंसर्ग -वृत्तिजात्यंतरं घटः ॥
न नरः सिंहरूपत्वान्न सिंहो नररूपतः । शब्दविज्ञानकार्याणां भेदाज्जात्यंतर हि सः ॥
[ सू० कृ०, श्रु० १ अ० १२ की टीका ]