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चतुर्थ परिच्छेद
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प्रमाण नही है । इस वास्ते जो साक्षर शब्द है, सो मुख के विना नहीं, अरु शरीर के विना मुख नहीं हो सकता । इस वास्ते जो कोई वादी किसी पुस्तक को ईश्वर का वचन मानेगा, वो ज़रूर ईश्वर का मुख और शरीर भी मानेगा । अरु जब शरीर माना, तब भगवान् की प्रतिमा भी ज़रूर माननी पडेगी । जब प्रतिमा सिद्ध हो गई, तव मन्दिर भी ज़रूर बनाना पडेगा । इस वास्ते जिन मन्दिर का बनाना जो है, सो आवश्यक है । अरु जो बनाने वाला है, सो यत्न पूर्वक बनाता है । अरु पृथिवी कायादिक के जो जीव हैं, सो अस्पष्ट चैतन्य वाले हैं । उन की हिंसा में अल्प पाप अरु जिन मन्दिर बनाने से बहुत निर्जरा है। तथा तुमारे पक्ष में तो श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास आदि में यम नियमादिकों के अनुष्ठान से भी स्वर्ग की प्राप्ति कही है । तो फिर कृपण, दीन, अनाथ, ऐसे पंचेंद्रिय जीवों का वध यज्ञ में काहे को करते हो ? इस से तो यही सिद्ध होता है, कि जो तुम निरपराध, कृपण, दीन, अनाथ जीवों को यज्ञादिकों में मारते हो । उस के कारण तुम अपने संपूर्ण पुण्य का नाश करके अवश्य दुर्गति में जाओगे, और शुभपरिणाम का होना तुम को बहुत दुर्लभ है।
जेकर कहो कि जिनमंदिर के बनाने में भी हिंसा होती है, इस वास्ते जिनमंदिर बनाने में भी पुण्य नही है ।