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चतुर्थ परिच्छेद
३६३ मान वस्तु का ही ग्राहक है - "*संबद्धं वर्त्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिनेति वचनात् " । अरु अनुमान भी नहीं है, क्योंकि यहां पर तन्प्रतिवद्ध लिंग [ अनुमान का साधक हेतु ] कोई भी नही दीखता है । अरु आगम प्रमाण भी नहीं है, क्योंकि आगम तो विवादास्पद - झगड़े का घर है, जो कि आज तक सिद्ध नहीं हुआ है। तथा अर्थापत्ति अरु उपमान यह दोनों अनुमान के ही अंतर्गत हैं । तो अनुमान के खण्डन से यह भी दोनों खण्डित हो गये ।
प्रतिवादी:- जैसे तुम जिनमंदिर बनाते हुये पृथिवीकायादि जीवों की हिंसा को विशेष करके जिनमन्दिर की पुण्य का हेतु कल्पते हो । ऐसे हम भी यज्ञ में जो हिंसा करते हैं, सो पुण्य के वास्ते है । क्योंकि वेदोक्त विधि-विधान में भी परिणाम विशेष के होने से पुण्य ही होता है ।
स्थापना
सिद्धांती:- परिणाम विशेष वे ही पुण्य का कारण होते हैं, जहां और कोई उपाय न होवे, अरु यत्न से प्रवृत्ति होवे । ऐसी प्रवृत्ति जिनमंदिर में हो सकती है, क्योंकि श्रीभगवान् की प्रतिमा जिनमंदिर के विना रहती नहीं। जहां पर प्रतिमा रहेगी उसी का नाम जिनमंदिर है । जे कर कहो कि जिनप्रतिमा के पूजने से क्या लाभ है ? तो हम तुम को पूछते हैं, कि जो पुस्तक में ककारादि अक्षर लिखते हो, इन के * [ मीमासा श्लो वा० ४ ८४ ]