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जैनतत्त्वादर्श
भी है, तो भी मन्त्रों करके संस्कार करा हुआ गुण ही करता है । तथा जैसे अनि दाहक स्वभाव वाली भी है, तो भी सत्यशीलादिक के प्रभाव से दाह नहीं करती। ऐसे ही वेद मन्त्रादिकों करके संस्कार करी हुई जो हिंसा सो दोष का कारण नहीं । अरु वैदिकी हिंसा निंदनीय भी नहीं है, क्यों कि तिस हिंसा के करने वाले याज्ञिक ब्राह्मणों को जगत् में पूज्य दृष्टि से देखा जाता है ।
सिद्धांती: - यह भी तुमारा कहना असत् है, क्योंकि जितने दृष्टान्त तुम ने कहे है, सो सब विषम हैं, इस वास्ते तुमारे अभीष्ट की कुछ भी सिद्धि नहीं कर सकते । लोहे का पिंड जो पत्रादि रूप होने से जल के ऊपर तरता है, सो परिणामांतर होने से तरता है। परंतु वेद मंत्रों से संस्कार करके जब पशु को मारते हैं, तब उस में क्या परिणामांतर होता है ? क्या उस परिणामांतर से उन पशुओं को मारते समय दुःख नहीं होता ? दुःख को तो वे अरराट शब्द से प्रकट ही करते हैं। तो फिर लोह पत्र का दृष्टांत कैसे समीचीन हो सकता है ?
प्रतिवादी:- जो पशु यज्ञ में मारे जाते हैं, वो सर्व देवता हो जाते हैं। यह यज्ञ करने में परोपकार है ।
सिद्धांती: - इस बात में कौन सा प्रमाण है ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो इन्द्रिय संबद्ध वर्त्त