________________
चतुर्थ परिच्छेद
३६७ ' अर्थः-१. यद्यपि जिनमन्दिर बनाने में पृथिवी आदिक जीवों की हिंसा होती है, तोभी सम्यक्ष्टि की तिन जीवों पर निश्चय ही अनुकंपा है। २. इन की हिंसा से निवृत्त होकर ज्ञानी निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। कैसे निर्वाण को ? जो अव्या हत, और अनंत काल तक रहने वाला है। ३. जैसे रोगी की नाड़ी को वैद्य बड़े यत्न से वींधता है। उस वैद्य के ऐसे अच्छे परिणाम हैं, कि कदाचित् वो रोगी मर भी जावे, तो भी वैद्य को पाप नहीं । तैसे ही जिन मंदिर के बनाने में यत्नपूर्वक प्रवर्त्तमान पुरुषों को उन जीवों के ऊपर अनुकंपा ही है। परन्तु वेद के कहे मूजब वध करने में हम किंचित् मात्र भी पुण्य नहीं देखते।
प्रतिवादी-ब्राह्मणों को पुरोडाशादि [हवन के बाद का बचा हुआ द्रव्य प्रदान करने से पुण्यानुवंधी पुण्य होता है ।
सिद्धान्ती:-यह भी तुमारा कहना ठीक नहीं । क्योकि पवित्र सुवर्णादि प्रदान मात्र से भी पुण्योपार्जन का सम्भव हो सकता है। फिर जो कृपण, दीन, अनाथ, पशु गण को मारना और उन के मांस का दान करना, यह तुमारी केवल निर्दयता अरु मांस लोलुपता ही का चिन्ह है। __ प्रतिवादी:-हम केवल प्रदान मात्र ही पशुवध क्रिया का फल नहीं कहते हैं, किंतु भूत्यादिक, अर्थात् लक्ष्मी आदि भी प्राप्त होती है। यंदाह श्रुतिः- "श्वेतवायव्यमजमालभेत भूतिकाम इत्यादि"-[ श० प्रा०] भावार्थ:-भूति-ऐश्वर्य