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चतुर्थ परिच्छेद
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३७३ * व्यासेनाप्युक्तम्:ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते, ब्रह्मचर्यदयांभसि । स्नात्वातिविमल तीर्थे, पापपंकापहारिणि ||१| ध्यानाग्नौ जीवकुंडस्थे, दममारुतदीपिते । । असत्कर्मसमित्क्षेपै रग्निहोत्रं कुरुत्तमम् ।।२।। कपायपशुभि र्दुष्टै धर्मकामार्थनाशकैः । शममंत्रहुतै यज्ञ, विधेहि विहितं बुधैः ॥३॥ प्राणिघातात्त यो धर्ममीहते मूढमानसः । स बांछति सुधावृष्टिं, कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥४॥
* व्यास भी कहते हैं:
ज्ञान रूप चादर से आच्छादित, ब्रह्मचर्य और.दयारूप जल से परिपूर्ण, पापरूप कीचड को दूर करने वाले, अति निर्मल तीर्थ में स्नान करके, तथा जीवरूप कुण्ड में दमरूप पवन से प्रदीप्त ध्यानरूप अग्नि में अशुभ कर्मरूप काष्ठ का प्रक्षेप करके उत्तम अग्निहोत्र को करो ॥१-२॥
धर्म, अर्थ और काम को नष्ट करने वाले कषावरूप दुष्ट पशुओं का शमादि मंत्रों के द्वारा यज्ञ करो ॥३॥.
जो मूढ पुरुष प्राणियों का घात करके धर्म को इच्छा करता है, वह मानो काले सांप की बावी से अमृत की वर्षा की इच्छा कर रहा है ॥४॥