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चतुर्थ परिच्छेद
३७१ समाहिवरमुत्तमं दितु" इत्यादि वचनों का कालांतर में ही फल मिलना कहा जाता है। ऐसे ही हमारे अभिमत वेद वचनों का भी इस लोक में नहीं किंतु लोकांतर में ही फल होता है । इस वास्ते विवाहादि के उपालंभ का अवकाश नहीं है ।
सिद्धांती:- अहो वचन वैचित्री ! जैसे वर्त्तमान जन्म विपे विवाहादि में प्रयुक्त मंत्र, संस्कारों का फल आगामी जन्म में स्वीकार करते हैं । ऐसे ही द्वितीय तृतीयादि जन्म में भी विवाहादि में प्रयुक्त मन्त्रों का फल मानने से अनंत भवों का अनुसन्धान होवेगा । तब तो कदापि संसार की समाप्ति नहीं होवेगी । तथा किसी को भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी । इस से यही सिद्ध हुआ, कि वेद ही अपर्यवसित संसार वल्लरी का मूल है तथा आरोग्यादि की जो प्रार्थना है, सो तो असत्य अमृषा भाषा के द्वारा परिणामों की विशुद्धि करने के वास्ते है, दोष के वास्ते नहीं । क्योंकि तहां भाव आरोग्यादि की ही विवक्षा है । तथा जो आरोग्य है, सो चातुर्गतिक संसार लक्षण भाव रोग परिक्षय रूप होने से उत्तम फल है । अतः इस विषय की जो प्रार्थना है, सो विवेकी जनों को किस प्रकार से आदरणीय नहीं ? तथा ऐसे भी मत कहना कि परिणामशुद्धि से फल की प्राप्ति
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मुत्तमं ददतु । अर्थात् हे भगवन् ! आरोग्य, बोधिलाभ - सम्यत्व तथा उत्तम समाधि को प्रदान करें ।