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रहते हैं । यह मीमांसक मानते हैं ।
अब इस का खण्डन लिखते हैं । हे मीमांसक ! वेदों में जो हिंसा कही है, सो धर्म का हेतु कदापि नहीं हो सकती है। क्योंकि हिंसा को कहने में प्रगट ही स्ववचन विरोध है। तथाहि, जेकर धर्म का हेतु है, तब तो हिंसा क्योंकर है ? अरु जेकर हिंसा है, तो धर्म का हेतु क्योंकर - हो सकती है ? कहा भी है
जैनतत्त्वादर्श
वेदविहित हिंसा
का प्रतिवाद
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ इस वास्ते हिंसा को धर्म नहीं कह सकते | क्योंकि एक स्त्री माता भी है, अरु बंध्या भ है, ऐसा कभी नहीं होता है । प्रतिवादी : - हिंसा कारण है, अरु धर्म तिल का कार्य है । सिद्धांती :- यह भी तुमारा कहना असत् है, क्योंकि जो जिस के साथ अन्वय व्यतिरेक वाला होता है, सो तिस का कार्य होता है । जैसे मृत्पिंडादि का घटादिक कार्य है । अर्थात् जिस प्रकार मृत्पिंड और घट इन दोनों में अन्वय व्यतिरेक का सम्बन्ध होने से घट मृत्पिंड का कार्य सिद्ध होता है, उस प्रकार हिंसा और धर्म का आपस में अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है । अर्थात् हिंसा करने से ही धर्म होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । क्योंकि अहिंसारूप