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जनतत्त्वादर्श प्रभृति यज्ञों के स्वसाध्य विषे वृष्टयादि फलों का अव्यभिचारी पना है । सो यज्ञ करने से जो देवता तृप्त होते हैं, वो वृष्टयादिकों के हेतु हैं । ऐसे ही * "त्रिपुराणववर्णितछगल" अर्थात त्रिपुरार्णव में वर्णन किये गये बकरे के मांस का होम करने से परराष्ट्र का जो वश होना है, सो भी उस मांस की आहुतियों से तृप्त हुए २ देवताओं का ही अनुभाव है । अरु अतिथि की प्रीति भी "मधुसंपर्कसंस्कारादिसमास्वादजा"मधुपर्क से प्रत्यक्ष ही दीख पड़ती है, अरु पितरों के वास्ते जो श्राद्ध करते हैं, उस करके तृप्त हुए पितर, स्वसंतान की वृद्धि करते हुए प्रत्यक्ष ही दीखते हैं । अरु इस बात में आगम भी प्रमाण है, आगम में देवप्रीत्यर्थ अश्वमेध, नरमेध, गोमेधादिक करने कहे हैं । अरु अतिथि विषय में “महोई वा महाजं वा श्रोत्रियायोपकल्पयेदिति” ऐसा कहा है । अरु -पितरों की प्रीति के वास्ते यह श्लोक हैं:
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु ।
औरभ्रेणाथ चतुरः, शाकुनेनाथ पंच वै ॥ पण्मासान् छागमांसेन, पार्षतेन च सप्त चै ।
अष्टोवणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥ winmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
* यह वाम सम्प्रदाय का मन्त्र शास्त्र है। + या०२० स्मृ०, आचाराध्याय० १०९ ।