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जैनतत्त्वादर्श मुक्ति नहीं होवेगी। क्योंकि विवेकाध्यवसाय संसारी को कदापि नहीं हो सकता । जहां लग संसारी है, तहां लग विवेक परिभावना करके संसारी पना दूर नहीं होता है । इस वास्ते विवेकाध्यवसाय के अभाव से कदापि संसार से छूटना नहीं होगा।
एक और भी बात है, कि इस सृष्टि से पहले केवल आत्मा है, ऐसे तुम मानते हो । तब फिर आत्मा को संसार कहां से लिपट गया ? जे कर कहोगे कि निर्मल आत्मा को संसार लिपट जाता है, तब तो मोक्ष होने के पीछे फिर भी संसार लिपट जायगा, तब तो मोक्ष भी क्या एक विडंबना खडी हो गई। _प्रतिवादी-सृष्टि से पहिले आत्मा को दिदृक्षा हुई, और तिस दिदृक्षा के वश से वह प्रधान के साथ अपना एक रूप देखने लगा, तव संसारी हो गया। अरु जब प्रकृति की दुष्टता उस के विचार में आई, तब प्रकृति से वैराग्य हुआ, फिर प्रकृति विषे दिदृक्षा नहीं रही, तब संसार भी नहीं।
सिद्धान्ती:-यह भी तुमारा कहना स्वकृतांत विरोध होने से अयुक्त है । क्योंकि दिदृक्षा-देखने की अभिलाषा का नाम है, सो अभिलाषा पूर्व देखे हुए पदार्थों में स्मरण से होती है। परन्तु प्रकृति तो पुरुष ने पूर्व कदापि देखी नहीं है, तब कैसे तिस विषे स्मरण अभिलाषा होवे ? जेकर कहोगे कि अनादि वासना के वश से प्रकृति में ही स्मरण