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चतुर्थ परिच्छेद तप, दान, और अध्ययन आदिक भी धर्म के कारण हैं। __प्रतिवादी:-हम सामान्य हिंसा को धर्म नहीं कहते, किंतु विशिष्ट हिंसा को धर्म कहते हैं । सो विशिष्ट हिंसा वोही है, जो वेदों में करनी कही है ।
सिद्धांती-जे कर वेद की हिंसा धर्म का हेतु है, तो क्या जो जीव यज्ञादिको में मारे जाते हैं, वो मरते नहीं हैं, इस वास्ते धर्म है ? अथवा उन के आर्तध्यान का अभाव है, इस वास्ते धर्म है ? अथवा जो यज्ञादिकों में मारे जाते हैं, वो मर के स्वर्ग को जाते हैं, इस वास्ते धर्म है ? इस में आद्य पक्ष तो ठीक नहीं, क्योंकि प्राण त्यागते हुए तो वो जी प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं। तथा दूसरा पक्ष भी असत है, क्योंकि दूसरे के मन का ध्यान दुर्लक्ष है, इस वास्ते आत्तध्यान का अभाव कहना, यह भी परमार्थ शून्य वचनमात्र है । आध्यान का अभाव तो क्या होना था । बल्कि, हा! हम बड़े दुःखी हैं ! है कोई करुणारस भरा दयालु जो हम को इस घोर यातना से छुड़ावे ! इस प्रकार अपनी भाषा में हृदय द्रावक आक्रन्दन करते हुए मूक प्राणियों के मुख की दीनता और नेत्रों की सरलता आदि के देखने से स्पष्ट उन विचारों के आर्तध्यान की उपलब्धि होती है ।
प्रतिवादी-जैसे लोहे का गोला पानी में डूबने वाला भी है, तोभी तिस के सूक्ष्म पत्र कर दिये जायं तो जल के ऊपर तरेंगे, डूवेंगे नहीं। तथा विष जो है सो मारने वाला