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चतुर्थ परिच्छेद दशमासांस्तु तृप्यंति, वराहमहिषाभिषैः । शशकूर्मयोस्तु मांसेन, मासानेकादशैव तु ॥ संवत्सरंतु गव्येन, पयसा पायसेन च । वाधीणसस्य मांसेन, तृप्ति दशवार्षिकी ॥
म० स्मृ०, अ० ३ श्लो० २६८-२७१] भावार्थ:-जेकर पितरों को मत्स्य का मांस देवे, तो पितर दो मास लग तृप्त रहते हैं । जेकर हरिण का मांस पितरों को देवे, तो पितर तीन मास लग तृप्त रहते हैं। जेकर मोढे का मांस पितरों को देवे, तब चार मास लग पितर तृप्त रहते हैं । जेकर जंगली कुक्कड़ का मांस पितरों को देवे, तो पितर पांच मास तक तृप्त रहते हैं। जेकर बकरे का मांस देवे, तो पितर छमास लग तृप्त रहते हैं । जेकर पृपत-विंदु करके युक्त जो हरिण, उस को पार्षत कहते हैं, तिस का मांस जो पितरों को देवे, तो पितर सात मास लग तृप्त रहते हैं । जेकर एण मृग का मांस देवे, तो आठ मास लग पितर तृप्त रहते हैं । जेकर सूअर अरु महिष का मांस देवे, तो दश मास लग पितर तृप्त रहते हैं। जेकर शश अरु कच्छु, इन दोनों का मांस देवे, तो ग्यारह मास लग पितर तृप्त रहते हैं । जेकर गौ का दूध अथवा खीर देवे, तो बारह मास लग पितर तृप्त रहते हैं, तथा वाध्रीण-जो अति बूढ़ा बकरा होवे, तिस का मांस देवे, तो वार वर्ष लग पितर तृप्त