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चतुर्थ परिच्छेद
३५७ अभिलाषा है । सो भी असत् है, क्योंकि वासना भी प्रकृति का विकार होने करके प्रकृति के पहिले नहीं थी । जेकर कहोगे कि वासना जो है, सो आत्मा का स्वरूप है, तब तो आत्मस्वरूपवत् वासना का कदापि अभाव नही होवेगा, अरु मोक्ष भी कदापि नहीं होवेगा । नब तो सांख्य का मत भी बालकों का खेल जैसा हो जायगा ।
अथ मीमांसक मत का खण्डन लिखते हैं । इस मत का स्वरूप ऊपर लिख आये हैं । अरु वेदांतियों के ब्रह्म-अद्वैत का खण्डन भी ईश्वरवाद में अच्छी तरे से कर चुके हैं, इस वास्ते यहां नहीं लिखा ।
अथ जैमिनीय मत का खण्डन लिखते हैं । जैमिनीय ऐसे कहते हैं, कि जो * "हिंसा गार्ध्यात्०" - वेदविहित हिंसा अर्थात् इन्द्रियों के रस वास्ते अथवा कुव्यसन से कीजाय सोई हिंसा अधर्म का हेतु है; क्योंकि शौनिक लुब्धकादिकों की तरें, वो प्रमाद से की जाती है। अरु वेदों में जो हिंसा कही है, सो हिंसा नहीं है; किंतु देवता, अतिथि और पितरों के प्रति प्रीतिसंपादक होने से तथाविध पूजा उपचार की भांति धर्म का हेतु है । अरु यह प्रीतिसम्पादकत्व असिद्ध नहीं है, क्योंकि कारीरी
* या हिमा गाईचा व्यसनितया वा क्रियते सैवाधर्मानुबन्धहेतु प्रसादसम्पादितत्वात् शौनिकलुब्ध कादीनामिव, इत्यादि ।
[स्या० मं०, श्लो०११]