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जैनतत्त्वादर्श
लिखने से क्या लाभ है ? जे कर कहोगे कि ककारादि अक्षरों की स्थापना देखने से वस्तु का ज्ञान होता है, तो तैसे ही जिन प्रतिमा को देखने से भी श्रीजिनेश्वर देव के स्वरूप का ज्ञान होता है । जेकर कहो कि प्रतिमा तो कारीगर ने पाषाण की बनाई है, इस से क्या ज्ञान होता है ? तो हम पूछते हैं कि वेद, कुरान, इंजील, आदि पुस्तक लिखारियों ने स्याही और काग़ज़ों के बनाए हैं, इन से क्या ज्ञान होता है ? जेकर कहोगे कि ज्ञान तो हमारी समझ से होता है, अक्षरों की स्थापना तो हमारे ज्ञान का निमित्त है । तैसे ही जिनेश्वर देव का ज्ञान तो हमारी समझ से होता है, परन्तु उस के स्वरूप का निमित्त प्रतिमा है । क्योंकि जो बुद्धिमान पुरुष किसी का प्रथम नक्शा नहीं देखेगा, अर्थात् चित्र नहीं देखेगा, वो कभी उस वस्तु का स्वरूप नहीं जान सकेगा। इस वास्ते जो बुद्धिमान् है, वो स्थापना को अवश्य मानेगा । जेकर कहो कि परमेश्वर तो निराकार, ज्योतिःस्वरूप, सर्व व्यापक है, तिसकी मूर्त्ति क्योंकर बन सकती है? यह तुमारा कहना बड़े उपहास्य का कारण है । क्योंकि जब तुमने परमेश्वर का रूप आकार - मूर्ति नहीं मानी, तब तो वेद, इंजील, कुरान, इन को परमेश्वर का वचन मानना भी क्योंकर सत्य हो सकेगा ? क्योंकि विना मुख के शब्द कदापि नहीं हो सकता है। जेकर कहोगे कि ईश्वर विना ही मुख के शब्द कर सकता है। तो इस बात के कहने में कोई