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चतुर्थ परिच्छेद
३५१. सम्यक्-आप्तोक्त नहीं है । तथा नैयायिक और वैशेषिक ad में जो *मोक्ष मानी है, सो भी प्रेक्षावानों - बुद्धिमानों को मानने योग्य नहीं है । क्योंकि ये लोग जब आत्मा ज्ञान से रहित होवे, एतावता जडरूप हो जावे, तब उस आत्माकी मोक्ष मानते हैं। ऐसी मोक्ष को कौन बुद्धिमान् उपादेय कहेगा ? क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो सर्व सुख और ज्ञान से रहित पाषाण तुल्य अपनी आत्मा को करना चाहे ? इसी वास्ते किसी ने वैशेषिकों का उपहास भी करा है:
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4 वरं वृंदावने रम्ये, क्रोष्ट्रत्वमभिवांछितम् । न तु वैशेपिकीं मुक्ति, गौतमो गंतुमिच्छति ॥
[स्या० मं०, ( श्लो० ८) में संगृहति ]
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* न्याय मत में आत्यन्तिक दुःखसरुप मोचमानी है । वैशेषिक मंत मे भी आत्मा के बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार आदि गुणों के आत्यन्तिक विनाश को ही मोच कहा है । इस लिये न्याय और वैशेषिक मत में मोच को ज्ञान और आनन्द स्वरूप अंगीकार नहीं किया । किन्तु उन के सिद्धान्त में यावद् दुःखोंकां आत्यन्तिकं विनाश ही अपवर्ग- मोच है । यथा: ---
“तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः” । [ न्या० द०, १-१-२२].
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इस से सिद्ध है, कि मोच दशा में आत्मा ज्ञान से शून्य और अपने स्वरूप में स्थित रहता है ।
↑ यह गौतम 'नाम' के किसी विद्वान् विशेष की उक्ति है। वह
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