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जैनतत्त्वादर्श - तात्पर्य कि, स्वर्ग के जो सुख हैं, सो सोपाधिक, सावधिक, परिमित आनंद रूप हैं, अरु मोक्ष जो,है, सो निरुपाधिक, निरवधिक, अपरमित आनंद्र ज्ञान सुख स्वरूप है, ऐसे विचक्षण पुरुष कहते हैं। जब कि यह मोक्ष पाषाण के तुल्य है, तब तो ऐसी मोक्ष से कुछ भी प्रयोजन नहीं। इससे तो संसार ही अच्छा है, कि जिस में दुःख करके कलुषित सुख तो भोगने में आता है । जरा विचार तो करो, कि थोडे सुख का भोगना अच्छा है, वा सर्व सुखों का उच्छेद अच्छा है ? इत्यादि विशेष चर्चा स्याद्वादमंजरी टीका [श्लो० ८] से जाननी । इस वास्ते नैयायिक मत, अरु वैशेषिक मत उपादेय नहीं है। ' अथ सांख्य मत का खण्डन लिखते हैं। सांख्य मत का
स्वरूप तो ऊपर लिखा है । सो जान लेना। सांख्य मत सांख्य का मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि का खण्डन परस्पर विरोधी और प्रकृति स्वरूप सत्त्व,
__रज, और तम गुणों का गुणी के विना एकत्र अवस्थान अर्थात् रहना युक्तियुक्त नहीं है। जैसे कि कृष्ण श्वेतादि गुण गुणी के विना एकत्र नहीं रह सकते हैं। तथा महदादि विकार के उत्पन्न करने के वास्ते प्रकृति में विषमता उत्पन्न करने में कोई भी कारण नहीं हैं।
कहता है, कि वैशेषिक की मुक्ति की अपेक्षा तो उसे वृन्दावन के किसी रम्य प्रदेश में गीदड़ बन कर रहना अच्छा लगता है।