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चतुर्थ परिच्छेद
३५३ क्योंकि प्रकृति के विना और कोई वस्तु तो सांख्य मानते नहीं हैं । तथा आत्मा को अकर्ता-अकिंचित्कर मानते हैं। जेकर प्रकृति में स्वभाव से वैषम्य मानोगे, तब निर्हेतुकता होवेगी, अर्थात् या तो पदार्थों में सत्त्व ही होगा और या असत्त्व ही रहेगा। क्योंकि जो कार्य कभी होवे, अरु कभी न होवे,वो हेतु के विना नहीं हो सकता है, अरु जो खरभंगादि नित्य असत् हैं, तथा आकाशादि नित्य सत् हैं, सो तो किसी हेतु से होते नहीं हैं। तथाः
नित्यं सत्त्वमसत्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः ।।
[सू० क०, १० १ अ० १२ की टीका में उद्धृत] तथा स्वभाव प्रकृति से भिन्न है ? वा अभिन्न है ? भिन्न तो नहीं, क्योंकि प्रकृति विना सांख्यों ने अपर कोई वस्तु मानी नहीं है, जेकर कहोगे कि अभिन्न है, तब तो प्रकृति ही है, “न तु स्वभावः"-स्वभाव नहीं है।
तथा एक और भी बात है कि महत् अरु अहंकार को हम ज्ञान से भिन्न नहीं देखते, क्योंकि वुद्धि जो है सो अध्यवसायमात्र है, अरु अहंकार जो है, सो अहं सुखी, अहं दुःखी इस स्वरूप वाला है, तब ये दोनों चिद्रूप होने से आत्मा के ही गुण विशेप हैं, किन्तु जड़ रूप प्रकृति के विकार नहीं हैं।