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जैनतत्त्वादर्श करके गुण जो हैं, सो द्रव्य से न्यारे नहीं हैं। द्रव्य के ग्रहण ही से गुण का ग्रहण करना न्याय्य है, पृथक् पदार्थ मानना युक्त नहीं है। तथा शब्द जो है, सो आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि यह तो पौद्गलिक है, अरु आकाश अमूर्त है । शेष जो कुछ वैशेषिक ने कहा है, सो प्रक्रियामात्र है, साधन दूषणों का अंग नहीं है।
३. अरु कर्म भी गुणवत् पृथक् पदार्थ मानना अयुक्त है।
४. अथ सामान्य दो प्रकार के हैं, एक पर. दूसरा अपर । तिन में पर सामान्य महासत्ता का नाम है, वो द्रव्यादि तीन पदार्थों में व्याप्त है । अरु जो अपर है, सो द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादिक है। तिन में महासत्ता को पृथक् पदार्थ मानना अयुक्त है। क्योंकि सत्ता में जो सत् प्रत्यय है, सो क्या और किसी सत्ता के योग से है ? वा स्वरूप करके है ? जेकर कहोगे कि और सत्ता के योग से है, तब तो तिस सत्ता में जो सत् प्रत्यय है, वह किसी और सत्ता के योग से होना चाहिये । इस प्रकार तो अनवस्था दूपण आता है । जेकर कहोगे कि स्वरूप करके सत् है, तब तो द्रव्यादिक भी स्वरूप करके सत् हैं। तो फिर अजा के गल के स्तनों की तरे निष्फल सत्ता की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? एक और भी द्रव्य में परिणाम को उत्पन्न करने वाली जो शक्ति है, वही इस का 'गुण' है, और गुण से होने वाला परिणाम 'पर्याय' है; गुण कारण है और पर्याय कार्य है।
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