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जनतत्त्वादर्श
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उपमान है । यथा-जैसी गौ है तैसा गवय - रोझ है। यहां भी संज्ञा संज्ञी के सम्बन्धी की प्रतिपत्ति ही उपमान का अर्थ है । तब यहां भी अन्यथानुपपत्ति के सिद्ध होने से उपमान भी अनुमान के अन्तर्भूत ही है, पृथक् प्रमाण नहीं । जेकर कहोगे कि यहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है, तब तो व्यभिचारी होने से उपमान प्रमाण ही नहीं है । शब्द भी सर्व ही प्रमाण नहीं है, किंतु जो आप्त प्रणीत आगम है, सोई प्रमाण है । अरु अर्हत के विना दूसरा कोई आप्त है नहीं । इस बात का विशेष निर्णय देखना होवे, तो सम्मतितर्क, नंदीसिद्धांत, आप्तमीमांसादि शास्त्र देख लेने । तथा एक और भी बात है, कि यह चारों प्रमाण आत्मा का ज्ञान है, अरु ज्ञान आदि वस्तु के गुणों को पृथक् पदार्थ मानिये, तब तो रूप रसादि को भी पृथक् पदार्थ मानना चाहिये । जेकर कहो कि प्रमेय के ग्रहण इन्द्रिय और अर्थादि से ये भी ग्रहण किये जाते हैं । भी तुमारा कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि द्रव्य गुणों का अभाव है, द्रव्य के ग्रहण करने से गुणों का भी ग्रहण
तो यह
से पृथक्
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न रहे तो भी हेतु से साध्य का अनुमान हो सकता है । परन्तु जहां पर अविनाभाव नहीं है, वहां पर हेतु त्रैविध्य होने पर भी साध्य की सिद्धि नहीं होती । जैसे— कृत्तिका के दर्शन से रोहिणी के उदय विषयक अनुमान में कार्य कारण भाव का अभाव होने पर भी अविनाभाव से साध्य की सिद्धि हो जाती है। हेतु त्रैविध्य हेतु का पक्ष तथा सपक्ष में रहना और विपक्ष में न रहना ।