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जैनतत्त्वादर्श
ज्ञान किया जावे, उस को प्रमाण कहते हैं । सो प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और शब्द भेद से चार प्रकार का है। तत्र इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षमिति गौतमसूत्रम्" । [ न्या० द० अ० १ ० १ सू० ४]
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इस का यह तात्पर्य है, कि इन्द्रिय अरु अर्थ का जो संबंध, तिस से उत्पन्न हुआ जो व्यपदेश और व्यभिचार से रहित, निश्चयात्मक ज्ञान, तिस को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । परन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण का यह लक्षण ठीक नहीं है। जहां अर्थ ग्रहण के प्रति आत्मा का साक्षात् व्यापार हो, सोई प्रत्यक्ष प्रमाण है, और वह अवधि, मनः पर्यव तथा केवल है। यह जो प्रत्यक्ष नैयायिकों ने कहा है, सो उपाधि द्वारा प्रवृत्त होने से अनुमान की तरे परोक्ष है । यदि इस को उपचार प्रत्यक्ष माने, तब तो हो सकता है । परन्तु तत्त्वचिंता में उपचार का व्यापार नहीं होता ।
अनुमान प्रमाण के तीन भेद हैं- १. पूर्ववत्, २. शेषवत्, ३. सामान्यतोदृष्ट । तहां कारण से कार्य का जो अनुमान, सो पूर्ववत् । तथा कार्य से कारण का जो अनुमान, सो शेषवत्, तथा आंव के एक वृक्ष को फूला फला
* तत्र हेयोपादेयप्रवृत्तिरूपतया येन पदार्थपरिच्छित्तिः क्रियते तत् प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । [ सू० कृ० श्रु० १ अ० १२ की टीका ]
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