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ફર
चतुर्थ परिच्छेद
गुणों के अंतर्भूत है । इस वास्ते पृथक् पदार्थ कहना ठीक नहीं। तथा दुःख, यह भी फल से न्यारा नहीं । अरु जन्ममरणादि सर्व प्रकार के दुःखों से रहित होना अपवर्ग- मोक्ष है । सो हम ने नवतत्त्व में माना ही है ।
३. तथा यह क्या है ? ऐसे अनिश्चयरूप प्रत्यय को संशय कहते हैं, सो भी निर्णय ज्ञानवत् आत्मा ही का गुण है ।
४. तथा मनुष्य जिस से प्रयुक्त हुआ प्रवृत्त होता है, तिस का नाम प्रयोजन है, सो भी इच्छा विशेष होने से आत्मा का ही गुण है ।
५. तथा जो विवाद का विषय न हो अर्थात् वादी प्रतिबादी दोनों को संमत हो, सो दृष्टांत है। वो भी जीवाजीवपदार्थों से न्यारा नहीं है इस वास्ते पृथक् पदार्थ नहीं है । क्योंकि अवयवग्रहण में भी आगे इस का ग्रहण हो जावेगा ।
६. तथा सिद्धांत चार प्रकार का है- (१) 'सर्व तंत्राविरुद्ध:'सर्व शास्त्रों में अविरुद्ध, जैसे स्पर्शनादि इन्द्रिय हैं, अरु स्पर्शादि इन्द्रियार्थ हैं, तथा प्रमाणों द्वारा प्रमेय का ग्रहण होता है । ( २ ) समानतंत्रसिद्ध और परतंत्रासिद्ध प्रतितंत्रसिद्धांत है, जैसे सांख्य मत में कार्य सत् ही उत्पन्न होता है, न्याय वैशेषिक मत में असत् और जैन मत में सदसत् उभयरूप उत्पन्न होता है । (३) जिस की सिद्धि के होने पर और भी अर्थ अनुषंग करके सिद्ध हो जावे, सो अधिकरणसिद्धांत है । तथा (४) "अपरीक्षितार्थाभ्युपगमत्वात्तद्वि--,