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चतुर्थ परिच्छेद सिद्धान्तीः-तो फिर तिस का क्या पुरुषार्थ है ? जब कर्म ही की अपेक्षा से कर्ता है, तब तो ईश्वर की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? कर्म ही के वल से सब कुछ हो जावेगा। तथा चौथे पांचमे विकल्प में ईश्वर रागी और द्वेषी हो जावेगा, तब तो ईश्वर क्योंकर सिद्ध होवेगा? तथाहि क्रीडा करने से वालवत् रागवान ईश्वर है । तथा निग्रह अनुग्रह करने से भी राजा की तरें ईश्वर राग द्वेष वाला सिद्ध होगा।
जेकर कहो कि ईश्वर का स्वभाव ही जगत रचने का है। तव तो जगत् को स्वभाव से ही हुआ माना । फिर ईश्वर की कल्पना काहे को करते हो ? इस वास्ते कार्यत्व हेतु, बुद्धिमान कर्ता-ईश्वर को सिद्ध नहीं कर सकता। इस वास्ते नैयायिक, वैशेषिक जो जगत् का कर्ता ईश्वर को मानते हैं, सो मूर्खता का सूचक है । विशेष करके जगत् कर्ता का खण्डन देखना होवे, तो सम्मतितर्क ग्रंथ में देखना। अरु जो नैयायिकों ने सोला पदार्थ माने हैं, सो भी
वालकों की खेल है, क्योंकि सोला पदार्थ सोलह पदार्थों घटते नहीं हैं। वे सोलां पदार्थ यह हैं:की समीक्षा १. प्रमाण, २. प्रमेय, ३. संशय, ४ प्रयोजन,
५. दृष्टांत, ६. सिद्धांत, ७. अवयव, ८. तर्क, ९. निर्णय, १०. वाद, ११. जल्प, १२. वितण्डा, १३. हेत्वाभास, १४. छल, १५. जाति, १६. निग्रहस्थान ।
१. हेयोपादय रूप से जिस करके पदार्थों का परिच्छेद