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चतुर्थ परिच्छेद
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देख कर संसार के अन्य सभी आंब के वृक्ष फूले फले हुए हैं, ऐसा जानना, अथवा देवदत्तादिकों में गति पूर्वक, स्थान से स्थानांतर की प्राप्ति को देख कर सूर्य में भी गति का अनुमान करना, सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। परंतु तहां भी अन्यथानुपपत्ति ही गमक है, कारणादिक नहीं क्योंकि अन्यथानुपपत्ति के बिना कारण को कार्य के प्रति व्यभि चार होने से, उसी को गमक मानना चाहिये । अरु जहां अन्यथानुपपत्ति है, तहां कार्य कारणादिकों के बिना भी गम्यगमकभाव देखते हैं, जैसे कृत्तिका के देखने से रोहिणी का उदय होवेगा । तदुक्तं
* अन्यथानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नच्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥
तथा एक और भी बात है, कि जब प्रत्यक्ष प्रमाण ही नैयायिक का कहा प्रमाण न हुआ, तब प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान जो है, सो क्योंकर प्रमाण होवेगा ! तथा "प्रसिद्ध साधर्म्यात् " अर्थात् प्रसिद्ध साधर्म्य से जो साध्य का साधन है, सो
* अन्यथानुपपन्नत्वम्— अविनाभावः । [ प्र० मी० १-२-९ ] जहा पर अविनाभाव है, वहा पर हेतु की त्रिविधरूपता की क्या आवश्यकता है ? और जहा पर अविनाभाव नहीं, वहा पर भी हेतु - त्रैविध्य अनावश्यक है |
तात्पर्य कि जहां पर अविनाभाव है, वहा पर हेतु त्रैविध्य रहे . या