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जैनतत्त्वादर्श से भी व्यभिचार है । ईश्वर बुद्धयादिकों में कार्यत्व के होने पर भी वहां समवायी कारण ईश्वरादि से भिन्न बुद्धिमत्पूर्वकत्व का अभाव है । जेकर यहां भी इसी तरे मानोगे, तब तो अनवस्थादूषण होवेगा। तथा यह कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्टभी है, क्योंकि बिना बोये उत्पन्न हुये तृणादिकों के विषय में बुद्धिमान कर्ता का अभाव, अग्नि के अनुष्णत्व साध्यविषे द्रव्यत्व हेतु की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण से दीख पड़ता है। • प्रतिवादीः-अंकुर तृणादिकों का भी अदृश्य ईश्वर कर्ता है। • सिद्धांतोः-यह भी ठीक नहीं, तहां अदृश्य ईश्वर का होना, क्या इसी प्रमाण से है ? अथवा और किसी प्रमाणसे है ? प्रथम पक्ष में चक्रक दूषण है । इस प्रमाण से तिस का सद्भाव सिद्ध होवे, तव अदृश्य होने से ईश्वर के अनुपलंभ की सिद्धि होवे, तिसको सिद्धि के होने पर कालात्ययापदिष्ट का अभाव सिद्ध होवे, तिस के पीछे इस प्रमाण की सिद्धि होवे । दूसरा पक्ष भी अयुक्त है, क्योंकि ईश्वर के भावावेदी किसी प्रमाण का सद्भाव नहीं है । यदि प्रमाण का सद्भाव है, तो भी ईश्वर के अदृश्य होने में क्या शरीर का न होना कारण है ? वा विद्यादि का प्रभाव है ? वा जाति विशेष है ? प्रथम पक्ष में अशरीरी होने से मुक्त 'प्रात्मा की भांति कर्त्तापने की उपपत्ति नहीं हो सकती।