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चतुर्थ परिच्छेद
३३३ है, क्योंकि दृश्य विशेष में ही कार्यत्व हेतु की प्रसिद्धि है । अदृश्य विशेष में नहीं । खरविषाण आधार वाले सामान्य को भांति ही तिल की तो स्वप्न में भी प्रतिपत्ति नहीं हो सकती । इस वास्ते जैसे कारण से जैसा कार्य उपलब्ध होता है, तैसा ही अनुमान करने योग्य है । यथा यावत् धर्मात्मक अग्नि से यावत् धर्मात्मक धूम की उत्पत्ति सुदृढ प्रमाण से प्रतिपन्न है, तैसे ही धूम से तैसी ही अग्नि का अनुमान होता है । इस कहने से, साध्य साधन की विशेष रूप से व्याप्ति ग्रहण करने पर सब अनुमानों का उच्छेद होजावेगा, इत्यादि कथन का भी खण्डन हो गया ।
तथा विना बीज के बोये जो तृणादिक उत्पन्न होते हैं, तिन के साथ यह कार्यत्व हेतु व्यभिचारी है। बहुत से कार्य देखने में आते हैं । उन में से कितनेक तो बुद्धिमान के करे हुये दीखते हैं, जैसे घटादिक । और कितनेक इस से विपरीत दिखाई देते हैं, जैसे बिना बोये तृण आदिक । जेकर कहोगे कि हम सब को पक्ष में ही लेवेंगे, तब तो *'स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत्" इत्यादि भी गमक होने चाहिये । तब तो कोई भी हेतु व्यभिचारी न होवेगा । जहां जहां व्यभिचार होवेगा, तहां तहां तिस को पक्ष में कर लेने से व्यभिचार दूर हो जावेगा । तथा इस हेतु का ईश्वर बुद्धि आदि
* वह श्याम होगा, उस (मित्रा ) का पुत्र होने से, दूसरे पुत्र की भान्ति ।