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चतुर्थ परिच्छेद
३१३ पकार नहीं कर सकते । इस वास्ते तत्त्ववेत्ताओं को अपने पुत्रादिकों में प्रात्मीय अभिनिवेश, और वैरियों विषे द्वेष नहीं होता तथा लोगों को अनात्मीय पदार्थों में जो प्रात्मीय अभिनिवेश होता है, सो अतत्त्वमूलक होने से अनादि वासना के परिपाक से उत्पन्न हुआ जानना ।
प्रश्न: यदि परमार्थ से उपकार्य उपकारक भाव नहीं, तब तुम कैसे कहते हो कि भगवान् सुगत ने करुणा से सकल जीवों के उपकार वास्ते धर्म देशना दो ? और पदार्थों की क्षणिकता भी जेकर एकांत ही है । तो तत्ववेत्ता ने एक क्षण के पीछे नष्ट हो जाना है, और तत्त्ववेत्ता यह भी जानता है, कि मैं पीछे नहीं था अरु भागे को मैने नहीं होना है, तो फिर वह मोक्ष के वास्ते क्यों यत्न करे ? __ उत्तरः-जो कुछ तुमने कहा है, सो हमारा अभिप्राय न जानने से कहा है, और वह अयुक्त है । भगवान् जो हैं, सो प्राचीन अवस्था विषे अवस्थित हैं, अरु सकल जगत् को राग द्वेषादि दुःखों से व्याप्त जान कर, और मेरे को इस सकल जगत् का दुःख दूर करना योग्य है, ऐसी दया उत्पन्न होने से नैरात्म्य क्षणिकत्वादि को जानता हुआ भी, तिन उपकार्य जीवों में नि:क्लेश क्षण उत्पन्न करने के वास्ते, प्रजाहितैपी राजा की तरें, सकल जगत के साक्षात् करने में समर्थ, अपनी संततिगत विशिष्ट क्षण की उत्पत्ति के वास्ते यत्न का प्रारम्भ करता है। क्योंकि सकल जगत् के साक्षा