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चतुर्थ परिच्छेद अर्थात् नहीं हो सकता । कहा भी है:
वास्यवासकयोश्चैव मसाहित्यान्न वासना | पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो, वास्यते नोत्तरः क्षणः ॥ उत्तरेण विनष्टत्वान्न च पूर्वस्य वासना ।
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[श्लो० वा०, निरा० वा० श्लो० १८२, १५३ ]
एक और भी बात है, कि वासना वासक से भिन्न है ? वा अभिन्न ? जेकर कहोगे कि भिन्न है, तब तो वासना करके शून्य होने से, अन्य की भांति उस को भी वासना कदापि वासित नहीं करेगी । जेकर कहोगे कि अभिन्न है, तव तो वास्य क्षण में वासना का संक्रम कदापि नहीं होवेगा । क्योंकि अभिन्न होने से, वासना वासक का ही स्वरूप होगी । तो जैसे वालक का संक्रम नहीं होता, उसी प्रकार वासना का भी नहीं होगा । यदि वास्यक्षण में वासक की भी संक्रांति मानोगे, तब तो अन्वय का प्रसंग होवेगा । इस वास्ते तुमारा कहना किसी प्रकार से भी काम का नहीं है । तथा जो तुमने राग द्वेषादि से व्याप्त दुखो जगत् के उद्धार के वास्ते बुद्ध की देशना की बात कही है, वो भी युक्ति युक्त नहीं। क्योंकि तुमारे मत में पूर्वापर त्रुटित क्षण ही परमार्थ से सत् हैं, और क्षणों के रहने का कालमानू मात्र एक परमाणु के व्यतिक्रम जितना है, इस वास्ते उत्पत्ति से व्यतिरिक्त तिन की और कोई स्थायी क्रिया उपपद्यमान
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