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जैनतत्त्वादर्श लेता। जेकर साधुओं के उपकारार्थ अरु दुष्टों के संहार वास्ते अवतार लेता है, तब तो वो असमर्थ हुआ, क्योंकि विना ही अवतार के लिये वो यह काम नहीं कर सकता था। जेकर कर सकता था, तो फिर काहे को गर्भावास में पड़ा ? इस वास्ते सर्व कर्म क्षय नहीं हुए, जेकर क्षय हो जाते तो कभी भी अवतार न लेता। यदुक्तम्:* दग्धे बीजे यथात्यंत, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः॥
[तत्त्वा०, अ० १० सू०७ का भाष्य ] उक्तं च श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादैरपि भवाभिगामुकानां प्रवलमोहविजृम्भितम्:
दग्धंधनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरनिष्टम् । मुक्तः स्वयं कृततनुश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनपतिहतेष्विह मोहराज्यम् ।।
[द्वि० द्वा० श्लो० १८]
* भावार्थ:-जैसे वोज के दग्ध होने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही कर्मवीज के दग्ध होने पर जन्म रूपी अंकुर नहीं होता।
आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने भी मुक्त आत्मा के पुनः संसार में आने को मोह का प्रवल साम्राज्य कहा है। अर्थात् ऐसा मानना सर्वथा अज्ञानता है।