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चतुर्थ परिच्छेद
३२५ मानते हैं । यह वात भी एक महासूढता का चिन्ह है, क्योंकि जगत् का कर्त्ता ईश्वर किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता है । इस जगत् कर्त्ता का खण्डन दुसरे परिच्छेद में अच्छी तरें विस्तार पूर्वक लिख आये हैं, तो भी भव्य जीवों के ज्ञान के वास्ते थोड़ा सा इहां भी लिख देते हैं ।
कई एक कहते हैं कि साधुओं के उपकार वास्ते अरु दुष्टों के संहार वास्ते ईश्वर युग युग में अवतार लेता है । अरु सुतादिक कितनेक यह बात कहते हैं, कि मोक्ष को प्राप्त हो करके, अपने तीर्थ को क्लेश में देखकर, फिर भगवान् अवतार लेता है । यथा:
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ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वागच्छंति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥
[पडू० स०, श्लो० ४६ की बृ० वृ० ]
जो फिर संसार में अवतार लेता है, वो परमार्थ से मोक्ष को प्राप्त नहीं हुआ है । क्योंकि उसके सर्व कर्म क्षय नहीं हुए हैं। जेकर मोहादिक कर्म तय हो जाते, तो वो काहे को अपने मत का तिरस्कार देख के पीडा पाता, अरु अवतार
* परित्राणाय साधूना, विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
[भ० गी० अ० ४ श्लो०८ ]