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। जैनतत्त्वादर्श ग्राह्य है । जेकर अनुमान से संबंध ग्रहण करें, तब अनवस्थादूषण प्राता है । अतः कार्य कारण भाव के विषे में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति न होने से अनुमान की भी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान के दोनों क्षणों में भी परस्पर कार्य कारण भाव के अवगम का निषेध हुआ जान लेना। क्योंकि वहां भी स्वसंवेदन करके अपने अपने रूप के ग्रहण करने में, परस्पर स्वरूप के अनवधारण से, तदनंतर मै उत्पन्न हुअा हूं, तथा इस का मै जनक हूं, ऐसी अवगति के न होने से, तुमारे मत में इन का कार्य कारण भाव नहीं बनता । इससे सिद्ध हुआ कि एक संतति में पतित होने से बन्ध मोक्ष का एकाधिकरण है,, तुमारा यह कथन मिथ्या है । तथा इस कहने से जो यह कहते हैं, कि उपादेयोपादान क्षणों का परस्पर वास्यवासक भाव होने से, उत्तरोत्तर विशिष्ट विशिष्टतर क्षणोत्पत्ति के द्वारा मुक्ति का होना संभव है, सो भी, उक्त रीति से उपादानोपादेय भाव की उपपत्ति न होने से प्रतिक्षिप्त ही जानना । तथा जो वास्यवासक भाव कहा है, सो भी, तिल पुष्पों की तरह एक काल में दोनों हों तब हो सकता है, पयोंकि *"अवस्थिता हि वास्यते, भावाभावैरवस्थितैः"-विद्यमान भाव ही विद्यमान भावों से वासित होते हैं । तब उपादेयोपादान, क्षणों का परस्पर प्रसाहित्य होने से वास्यवासक भाव कैसे होवे ?
* [ श्लो० वा०, निरालम्वनवाद श्लो० १८५.]
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