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'जैनतत्त्वादर्श
यन्ध मोक्षादिक का संभव ही नहीं है । क्योंकि सर्वकाल में एक स्वभाव होने से उस की अवस्था में विचित्रता नहीं हो सकती । तथा तुम तो किसी पदार्थ को नित्य मानते नहीं हो, "सर्वे क्षणिकमिति वचनात्" । अथ जेकर कहोगे कि अनित्य-क्षणिक है, तब तो वोही प्राचीन-बन्ध मोक्षादि *वैयधिकरण्य दूषण प्राप्त होगा । जे कर कहोगे कि वह अभिन्न है. तो फिर अभिन्न होने से [ तिल के स्वरूप की तरे ] संतानी ही सिद्ध हुआ, सन्तान नहीं | तब तो पूर्व का दूषण तद्वस्थ ही रहा । जे कर कहोगे कि ऋणों से अन्य सन्तान कोई नहीं, किंतु कार्य कारण भाव के प्रबन्ध से जो क्षण भाव हैं, सोई सन्तान हैं, इस वास्ते उक्त दोष नहीं है । यह भी तुमारा कहना प्रयुक्त है, क्योंकि तुमारे मत मैं कार्य कारण भाव ही नहीं घटता है । क्योंकि प्रतीत्यसमुत्वाद मात्र कार्य कारण भाव है । तब जैसे विवक्षित घटक्षण के अनन्तर अन्य घरक्षण है. तैसे पदादि क्षण भी है. अरु जैसे घट क्षण से पहिला अनन्तर विवक्षित घर क्षण है, तैसे पटादि क्षण भी है । तब तो प्रति नियत कार्य कारण भाव का अवगम कैसे होत्रे ?
तथा एक और भी दूर है. वो यह हैं. कि कारण से उत्पन्न होता हुआ कार्य, तत् उत्पन्न होता है ? अथवा असत् उत्पन्न होता है ? जेकर कहो कि सत् उत्पन्न होता * निन्न कत्रिकरण में होना ।