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जैनतत्त्वादर्श
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त्कार करे विना सर्व का उपकार करना अशक्य है । तिसवास्ते समुत्पन्न केवल ज्ञान, पूर्वावस्थापन भगवान् सुगत कृतार्थ भी है, तो भी कृपाके विशेष संस्कार वश से देशना देने में प्रवृत्त होता है। तब देशना सुन कर निर्मल बुद्धि के जीवों को, नैरात्म्यतत्व का विचार करते हुए भावना के प्रकर्ष विशेष से वैराग्य उत्पन्न होता है, तिस से उन को मुक्ति का लाभ होता है । परन्तु जो आत्मा को मानता है, तिस को मुक्ति, का संभव नहीं । क्योंकि परमार्थ से प्रात्मा के अस्तित्व कोमानेंगे तो प्रात्मदर्शी को आत्मा में रूप स्नेह प्रवश्य होगा, स्नेह के वश से इस आत्मा को सुखी करने की तृष्णा उत्पन्न होगी । तृष्णा के वशसे फिर सुखों के साधनों में प्रवृत्त होगा, और दोषों का तिरस्कार करके गुणों का आरोप करेगा | जब गुण उत्पन्न हुए, तब गुणों में राग करेगा । तिस राग से यावत्काल आत्माभिनिवेश रहेगा, तावत् काल पर्यन्त संसार है ।
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ये पश्यत्यात्मानं, तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात्सुखेषु तृष्यति, तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति सुखसाधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो, यावत्तावत् स संसारः ॥
[ षड्० स०, श्लो० ५२ की वृ० वृ० ]