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जैनतत्त्वादर्श नियति भी विचित्र रूप ही मानते हैं, तब तो नियति की विचित्रता बहुत विशेषणों विना नहीं होवेगी । तिस वास्ते नियति के बहुत विशेषण अंगीकार करने चाहिये । अब तिन विशेषणों का जो भाव है, सो तिस नियति ही से होता है, अथवा किसी दूसरे से ? जेकर कहोगे कि नियति से होता है, तब तो अनवस्था दूषण होता है । जेकर कहोगे कि अन्य से होता है, तो यह भी पक्ष अयुक्त है, क्योंकि नियति बिना और किसी को तुमने हेतु नहीं माना है। इस वास्ते यह तुमारा कहना किसी काम को नहीं है । तथा अनेक रूप नियति है, जेकर तुम ऐसे मानोगे, तब तो तुमारे मत के वैरी दो विकल्प हम तुम को भेट करते हैं । तुमारी नियति अनेक रूप जो है, सो मूर्त है ? वा अमूर्त है ? जेकर कहोगे कि मूर्त है, तब तो नामांतर करके कर्म ही तुमने माने । क्योंकि कर्म जो हैं, सो पुद्गलरूप होने से मूर्त भी हैं, अरु अनेक रूप भी हैं । तव तो तुमारा हमारा एक ही मतं हो गया, क्योंकि हम जिनको कर्म मानते हैं, उन ही कर्मों का नामांतर तुमने नियति मान लिया, परन्तु वस्तु एक ही है । अथ'जेकर नियति को अमूर्त मानोगे, तब तो नियति अमूर्त होने से सुख दुःख का हेतु न होवेगी । जैसे प्राकाश अमूर्त है, और सुख दुःख का हेतु नहीं है; पुद्गल ही मूर्त्त होने से सुख दुःख का हेतु हो सकता है । जेकर तुम ऐसे मानोगे कि धूम अपने कारण-अग्नि के विना नहीं होता है ।