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चतुर्थ परिच्छेद अतिरिक्त नरक स्वर्ग में जाने वाला जोव, प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं हुआ । तो जीवों के सुख दुःख का कारण धर्माधर्म है, और धर्माधर्म के उत्कृष्ट तथा निकृष्ट फल भोगने की भूमि स्वर्ग नरक है, तथा पुण्य पाप के सर्वथा क्षय होने से मोक्ष का सुख मिलता है । यह सब पूर्वोक्त वर्णन ऐसा है, जैसा कि आकाश में चित्राम करना है। क्योंकि जोव का न तो किसी ने स्पर्श किया है, न किसी ने खाकर उस का स्वाद चखा है, न किसी ने सूंघा है, न किसी ने देखा है, न किसी ने सुना है । तो फिर वे मूढमांत किस वास्ते जीव को मान करके, स्वर्गादि सुखों की इच्छा करके, शिर, दाढ़ी और मूंछ, मुण्डवा करके, नाना प्रकार के दुष्कर तप का अनुष्ठान करके, क्यों शीत, प्रातप को सहन करके, इस शरीर की विडंबना करते हुए इस मनुष्य जन्म को वृथा ही खराब कर रहे हैं ? वास्तव में यह उन की समझ की विडंबना है । इस वास्ते तप संयमादि सब कुछ बाल क्रीडा के समान है । यथा
तपांसि यातनाचित्राः, संयमो भोगवंचना। अग्निहोत्रादिकं कर्म, वालक्रीडेव लक्ष्यते ।। यावज्जीवेत् सुखं जीवेत, तावद्वैषयिकं सुखम् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ॥
[षड्० स० श्लो० ८१ की ६० वृ०]