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चतुर्थ परिच्छेद
३०१ इस मत का नाम चार्वाक, लोकायत आदि है । “च अदने, चर्वति भक्षयति तत्वतो न मन्यते पुण्यपापादिकं परोक्षवस्तुजातमिति चार्वाकाः, मयाकश्यामाकेत्यादि-सिद्धहैमोणादिदण्डकेन शब्दनिपातनम् । लोका निर्विचाराः सामान्या लोकास्तद्वदाचरति स्मेति लोकायताः, लोकायतिका इत्यपि, वृहस्पतिप्रणोतमतत्वेन बार्हस्पत्याश्चेति"-चर्व जो धातु है, सो भक्षण अर्थ में है, चर्वण-भक्षण जो करे, तात्पर्य कि जो पुण्य पापादिक परोक्ष वस्तुसमूह को न माने, सो चार्वाक । मयाक श्यामाक इत्यादि सिद्धहैमव्याकरण के उणादिदण्डक के द्वारा निपात से सिद्ध है । तथा लोकनिर्विचार, सामान्य लोगों की तरें जो आचरण करते हैं, वे लोकायत और लोकायतिक हैं। तथा वृहस्पति के प्ररूपे मत को मानने से इनको वार्हस्पत्य भी कहते हैं । अव चार्वाक का मत लिखते हैं । वे इस प्रकार से कहते
हैं, कि जीव-चेतना लक्षण परलोक में जाने चार्वाक की वाला नहीं है। पांच महाभूत से जो चेतन मान्यताए उत्पन्न होता है, सो भी यहां ही भूतों के नाश
होने से नष्ट हो जाता है । जेकर जीव परलोक से पाया होवे, तब तो उसे परलोक का स्मरण होना चाहिये, परन्तु होता नहीं है । इस वास्ते जोव न परलोक से आया है, अरु न परलोक में जाने वाला है । तथा जीव के स्थान में जो 'देव' ऐसा पाठ मानिये, तब यह