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चतुर्थ परिच्छेद
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से यहां पर आया है, अन्यथा भेड़िये के पगों का निशान नहीं हो सकता । तब वह नास्तिक पुरुष निज भार्या को कहने लगा, कि हे भने । "वृकपदं पश्य" भेड़िये का पंजा तु देख, जिस पंजे को ये अवहुश्रुत भेड़िये का पंजा कहते हैं । • लोक रूढ से यह बहुञ्जन कहलाते हैं, परन्तु परमार्थ से तो ये महा ठोठ हैं। क्योंकि ये परमार्थ तो कुछ जानते नहीं, केवल देखा देखी रौला ( शोर) करने लग रहे हैं । परमार्थ से इन का वचन मानने योग्य नहीं है । ऐसे ही बहुत मतों वाले धार्मिक धूर्त-धर्म के बहाने दुसरों को ठगने में तत्पर, कल्पित अनुमान आगमादि से जीवादि का अस्तित्त्व सिद्ध करते हुए भोले लोगों को स्वर्गादि सुखों का वृथा ही लोभ दिखा कर, भक्ष्याभक्ष्य, गम्यागम्य, हेयोपादेयादि के संकटों में गिराते है । बहुत से मूर्खो के हृदय में धार्मिकता का व्यामोह उत्पन्न करते हैं । इस वास्ते बुद्धिमानों को उन का वचन नहीं मानना चाहिये । यह देख उस स्त्री ने अपने पति की सब बातों को स्वीकार कर लिया । तदनन्तर वह नास्तिक अपनी भार्या को ऐसे उपदेश देने लगा:
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पिव खाद च चारुलोचने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न तें । न हि भीरु ! गतं निवर्त्ततें, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥
[पड़० सं०, श्लो० ८२]व्याख्या:- हे चारुलोचने- सुन्दर आंखवाली ! " पिब"