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जैनतत्त्वादर्श . अर्थः- पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, तिन को जो संहतिः-संयोग, तिस करके जो देह की परिणति-परिणाम, तिससे चेतना, जैसे मदिरा के अंगों से-गुड़ धातकी प्रादिकों से उन्माद शक्ति उत्पन्न होती है, ऐसे ही इस देह में चैतन्य शक्ति उत्पन्न होजाती है, परन्तु देह से अन्य कोई जीव पदार्थ नहीं है । इस वास्ते दृष्ट सुखों का त्याग करना, और अदृष्ट सुखों में प्रवृत्त होना, यह तो लोगों की निरी' मूर्खता है। तथा जो शांतरस में मग्न होकर मोक्ष के सुख का वर्णन करते हैं, वे भी महा मूढ़ हैं। क्योंकि काम-मैथुन सेवन से अधिक न कोई धर्म है, न कोई मोक्ष है, और न कोई सुख है।
यह जो ऊपर मत लिखे हैं, इनके जो उपदेशक हैं, वे सर्व कुगुरु हैं । क्योंकि जो इनों के मत हैं, वे युक्ति और प्रमाण से खण्डित हो जाते हैं, तथा इन का कथन पूर्वापर विरोधी है।
प्रश्नःअहो जैन ! अरिहंत के कहे हुए तत्व का तुझ को बड़ा राग है, इस करके तुम अपने मत को तो निर्दोष ठहराते हो, अरु हमारे मतों को पूर्वापर विरोधी कहते हो। परन्तु हमारे मतों में कुछ भी पूर्वापर व्याहतपना नहीं है, क्योंकि हमारे जो मत हैं, सो सर्वथा निर्दोष हैं।
उत्तर:- वादियो! तुम अपने अपने मत का पक्षपात छोड़ कर, मध्यस्थपने को अवलंबन करके अरु निरभिमान हो कर सुन्दर वृद्धि को धार करके सुनो। हम तुमारे मतों में