________________
३०२
जैनतत्त्वादर्श कहना होगा कि सर्वज्ञादि विशेषण विशिष्ट कोई देव नहीं है । तथा मोक्ष भी नहीं, धर्माधर्म नहीं, पुण्य पाप नहीं, पुण्य पाप का जो फल-नरक, स्वर्ग, सो भी नहीं है । तथाहि
एतावानेव लोकोऽयं, यावानिंद्रियगोचरः। भद्रे वृकपदं पश्य, यद्वदंत्यबहुश्रुताः ॥
[षड्० स०, श्लो०८१] अर्थः-इतना ही मनुष्य लोक है,जितना कि प्रत्यक्ष देखने में आता है। क्योंकि जो इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, सोई पदार्थ है, और दूसरा कोई भी पदार्थ नहीं है । यहां पर लोक शब्द से लोक में रहे हुए पदार्थों का ग्रहण करना। तथा इस लोक से भिन्न जो जीव, पुण्य, पाप, अरु तिन का फल जो स्वर्ग नरकादिक कहे जाते हैं, सो अप्रत्यक्ष होने से नहीं हैं । जेकर अप्रत्यक्ष को भी माना जावे तब तो शशभंग, वंध्यापुत्रादि भी होने चाहिये । अतः पंचविध प्रत्यक्ष करके यथाक्रम-१. मृदु कठोरादि वस्तु, २. तिक्त, कटु, कषायादि द्रव्य, ३. सुगन्ध दुर्गन्ध रूप गन्ध, ४. भू, भूधर, भुवन, भूरुह, स्तंभ, कुम्भ, अम्भोरुहादि, नर, पशु, श्वापदादि, स्थावर, जंगम प्रमुख पदार्थों का समूह, ५. विविध वेणु, वीणादि वाद्य को ध्वनि, इन पांचों के विना और कुछ भी नहीं प्रतीत होता । जब कि पांच भूतों से
माने से नहीं है यापुत्रादि । मृदु कठोर