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चतुर्थ परिच्छेद
प्रतिरिक्त दूसरा कोई धर्म नहीं मानते। काम का सेवन करना ही इनके मत में पुरुषार्थ है ।
इस मत की उत्पत्ति, जैनमत के शीलतरङ्गिणी नामक शास्त्र में ऐसे लिखी है । एक बृहस्पतिनामा ब्राह्मण था, उस का दूसरा नाम वेदव्यास भी था, उस की एक वहिन थी। वो बालविधवा हो गई । उस के सुसराल में ऐसा कोई न था, जिस के प्राश्रय से वो अपना जीवन व्यतीत करती, तातें निराधार होकर, वह अपने भाई के घर में आ रही, वो अत्यंत रूपवाली युवती थी, उस का जो भाई था, तिस की भार्या मृत्यु को प्राप्त हो गई थी । जब बृहस्पति को काम ने अत्यंत पीडित किया, तब उसको अपनी वहिन के साथ विषय सेवन की इच्छा भई । अपनी बहिन से उस ने प्रार्थना करी, कि हे भगिनी ! मेरे साथ तूं संभोग कर, तब तिस की बहिन ने कहा कि हे भाई । यह बात उभयलोक विरुद्ध है, क्योंकि प्रथम तो मैं तेरी बहिन हूं, जेकर भाई के साथ विषय भोग करूंगी तो अवश्यमेव नरक में जाऊंगी, और यदि यह बात जगत् में प्रसिद्ध हो गई, तो लोग मुझ को धिक्कार देवेंगे, इस वास्ते यह नोच काम मे नहीं करूंगी। बहन की बात को सुन कर बृहस्पति ने अपने मन में सोचा, कि जब तक इसके मन से पाप अरु नरकादिकों का भय दूर नहीं होगा, तब तक यह मेरे साथ कभी संभोग न करेगी। अतः
चार्वाक मत
की उत्पत्ति
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