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चतुर्थ परिच्छेद योग्य है, कि ज्ञान के होते हुए कदाचित् कर्मदोष से अकार्य में प्रवृत्ति भी होवे, तो भी ज्ञान के बल से प्रतिक्षण संवेग भावना के द्वारा ज्ञानी में तीव्र अशुद्ध परिणाम नहीं होते हैं । जैसे कोई एक पुरुष राजादि के दुष्ट नियोग से विषमिश्रित अन्न को भयभीत मन से खाता है, तैसे ही सम्यक् ज्ञानी भी कथंचित् कर्मदोष से यदि अकार्य भी करेगा, तो भी संसार के दुःखों से भयभीत मनवाला अवश्य होवेगा, किंतु निःशंक-निर्भय नहीं होवेगा । संसार से जो भयभीत होना है, तिस ही को संवेग कहते हैं। तव सिद्ध हुआ कि जो संवेगवान है, वह तोब अशुभ अध्यवसाय वाला नहीं होता । अरु जो तुम ने कहा था, कि अज्ञान ही सत्पुरुषों को मोक्ष जाने के वास्ते श्रेय है, ज्ञान श्रेय नहीं । सो यह कहना भी मूढता का सूचक है, क्योंकि जिसका नाम ही अज्ञान है, वो श्रेय क्योंकर हो सकता है ? अरु जो तुमने कहा था, कि हम ज्ञान को मान भी लेवें, जेकर ज्ञान का निश्चय करने में कोई सामर्थ्य होवे। सो भी मूखों का सा कहना है । क्योंकि यद्यपि सर्व मतों वाले परस्पर भिन्न ही ज्ञान अंगीकार करते हैं, तो भी जिस का वचन प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित नहीं, अरु पूर्वापरव्याहत नहीं है, वो यथार्थरूप माना ही जावेगा । सो तैसा वचन तो भगवान ही का कहा हुआ हो सकता है, सोई प्रमाण है, शेष नहीं । अरु जो कहा था कि बौद्ध भी अपने बुद्ध भगवान् को सर्वज्ञ मानते हैं, इत्यादि । सो भी असत है,