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चतुर्थ परिच्छेद भी नहीं, क्योंकि दूसरा सर्वज्ञ कोई होवे, तव उपमान बने । तैसे ही अर्थापत्ति से भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि अन्यथा अनुपपद्यमान ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिस के होने से सर्वज्ञ सिद्ध होवे । जव भावग्राहक पांचों प्रमाणों से सर्वज्ञ सिद्ध न हुआ, तव तो सर्वज्ञ अभाव प्रमाण का ही विषय सिद्ध हुआ । तथा यह अनुमान भी सर्वज्ञ के अभाव को ही सिद्ध करता है । यथा, सर्वज्ञ नहीं है प्रत्यक्षादि अगोचर होने से, शशभंगवत् । जव कि कोई सर्वज्ञ देव नहीं, और उस सर्वज्ञ देव का कहा हुआ कोई शास्त्र नहीं । तव अतींद्रिय अर्थ का ज्ञान कैसे होवे ? ऐसी आशंका करके जैमिनी कहना है, कि इस संसार में “अतींद्रिय”इन्द्रियों के अगोचर आत्मा, धर्माधर्म, काल, स्वर्ग, नरक,
और परमाणु प्रमुख जो पदार्थ हैं, तिन का साक्षात् [करतलामलकवत्] देखने वाला कोई नहीं । इस हेतु से नित्य जो वेद वाक्य हैं, तिन ही से यथार्थ तत्त्व का निश्चय होता है। क्योंकि वेद जो हैं, सो अपौरुषेय हैं, एतावता किसी के रचे हुये नहीं, अनादि नित्य हैं । तिन वेद वचनों से ही अतींद्रिय पदार्थो का ज्ञान होता है, परन्तु किसी सर्वज्ञ के कहे हुये आगम से नहीं होता । क्योंकि सर्वज्ञ, कोई न हुआ है, न वर्तमान में है, न आगे को कोई होवेगा । यथा