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चतुर्थ परिच्छेद
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कि जिस का वचन प्रामाणिक माना जावे । प्रथम तो कहने वाला कोई देव ही सिद्ध नहीं हो सकता, फिर उसके रचे हुए शास्त्र कैसे प्रामाणिक हो सकते हैं । तथा उस की सिद्धि में यह अनुमान भी है । यथः - पुरुष सर्वज्ञ नहीं, मनुष्य होने से, रथ्यापुरुषवत् I
प्रश्नः - किकर होकर जिसकी असुर, सुर सेवा करते हैं. और तीन लोक के ऐश्वर्य के सूचक छत्र चामरादि जिस की विभूति हैं, सो सर्वज्ञ है, विना सर्वज्ञ के इस प्रकार की लोकोत्तर विभूति क्योंकर हो सकती है ?
उत्तरः- यह विभूति तो इन्द्रजालिया भी बना सकता है । इस बात का साक्षी तुमारे जैनमत का समंतभद्र आचार्य भी है । यथा
देवागमन भोयान - चामरादिविभूतयः ।
मायाविष्वपि दृश्यते, नातस्त्वमसि नो महान् ||
[आ० मी० श्लो० १]
मल
को चार तथा मृत्यु
कर देने पर सुवर्ण
प्रश्नः - जैसे अनादि सुत्र पाकादि की क्रिया विशेष से दूर सर्वथा निर्मज्ञ हो जाता है, वैसे ही आत्मा भी निरंतर ज्ञानादिकों के अभ्यास से मल रहित होकर सर्वज्ञता को प्राप्त कर सकता है, अर्थात सर्वज्ञ हो जाता है ।
उत्तरः- यह कहना भी तुमारा ठीक नहीं है, क्योंकि