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चतुर्थ परिच्छेद
२८३ शौच, लज्जा, बुद्धि, क्षमा, अनुकंपा, प्रसादादि रूप है, यह सर्व सत्त्वगुण के कार्य हैं । अरु जो कुछ दुःख उपलब्ध होता है, सो द्वेष, द्रोह, मत्सर, निदा, वंचन, बंधन, तापादि रूप है, सो रजोगुणा के कार्य हैं । अरु जो कुछ मोह, उपलब्ध होता है, सो अज्ञान, मद, आलस्य, भय, दैन्य, अकर्मण्यता, नास्तिकता, विषाद, उन्माद स्वप्नादि रूप है, यह तमोगुण के कार्य हैं। इन परस्परोपकारी सत्त्वादिक तीन गुणों करके सर्व जगत् व्याप्त है । परन्तु ऊर्ध्व लोक में देवताओं विषे वाहुल्य करके सत्त्वगुण है, अधोलोक, तिर्यच और नरक विषे वाहुल्य करके तमोगुण है, तथा मनुष्यों में बहुलता करके रजोगुण है ।
इन तीनों गुणों की जो सम अवस्था है, तिस का नाम प्रकृति है तिस प्रकृति को प्रधान और अव्यक्त भी कहते हैं । सो प्रकृति नित्य स्वरूप है । "प्रप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं कूटस्थं नित्यम्" यह नित्य का लक्षण है । अरु यह जो प्रकृति है, सो अनत्रयवा, असाधारणी, अशब्दा, अस्पर्शा, अरसा, रूपा, अगंधा, अव्यया कही जाती है । जो सांख्यमती मूल हैं, वे एक एक आत्मा के साथ न्यारा न्यारा प्रधान मानते हैं, अरु जो नवीन सांख्यवादी हैं, वे सर्वात्माओं में एक नित्य प्रधान मानते हैं । प्रकृति संरु आत्मा के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, इस वास्ते सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम लिखते हैं ।