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चतुर्थ परिच्छेद
रू५ हैं । १. रूपतन्मात्रा-सो शुक्ल कृष्णादिरूप विशेष, २. रस. तन्मात्रा-सो तिक्तादिरस विशेष,३. गंधतन्मात्रा-सो सुरभि प्रादि गंध विशेष, ४. शब्दतन्मात्रा-सो मधुरादि शब्द विशेष, ५. स्पर्शतन्मात्रा-सो मृदु काठिन्यादि स्पर्श विशेष है। यह षोडशक गण है । इन पांच तन्मात्राओं से पांच भूत उत्पन्न होते हैं। यथा-रूपतन्मात्रा-से अग्नि उत्पन्न होती है। रसतन्मात्रा से जल उत्पन्न होता है । गंधतन्मात्रा से पृथ्वी उत्पन्न होती है । और शब्द तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न होता है । तथा स्पर्शतन्मात्रा से वायु उत्पन्न होता है। ऐसे पांच तन्मात्राओं से पांच भूत उत्पन्न होते हैं । यह सब मिल कर चौवीस तत्वरूप प्रधान सांख्य मत में निवेदन किया। अर्थात् प्रकृति, महान, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, मन, पांच तन्मात्रा, पांच भूत, यह चौवीस तत्त्व कहे हैं। इन में से प्रधान केवल प्रकृतिरूप ही है, 'क्योंकि उसकी किसी से उत्पत्ति नहीं है । और बुद्धि प्रादिक सात अपने से उत्तरवर्ती के कारण और पूर्ववर्ती के कार्य हैं, 'इस वास्ते इन सातों को प्रकृति विकृति कहते हैं । पोडशक गण नो कार्यरूप होने से विकृति रूप ही है । तथा पुरुष जो है, सो न प्रकृति है, न विकृति है, क्योंकि वह न किसी से उत्पन्न हुआ है, न किसी को उत्पन्न करता है। तथा सांख्य मत के प्राचार्य ईश्वरकृष्ण सांख्यसप्तति नामक ग्रन्थ में लिखते हैं: