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जैनतत्त्वादर्श . क्योंकि प्रकृति प्रवृत्ति स्वभाव वाली है। तथा प्रात्मा 'विगुण'-सत्त्वादि गुण रहित है, क्योंकि सत्वादिक जो हैं सो प्रकृति के धर्म हैं । तथा 'भोक्ता'-भोगने वाला है, भोक्ता भी साक्षात् नहीं, किंतु प्रकृति का विकारभूत, उभय मुख दर्पणाकार जो बुद्धि है, तिस में संक्रांत हुवे सुख दुःखादि के, अपने निर्मल स्वरूप में प्रतिबिम्बित होने से, वह भोक्ता कहलाता है-"वुद्धयध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते' इति वचनात् । जैसे जाई के फूलों के सन्निधान के वश से स्फटिक में रक्ततादि का व्यपदेश होता है, अर्थात् यह स्फटिक रक्त' हैं, ऐसा कहने में आता है । तैसे ही प्रकृति के निकट होने से पुरुष भी सुख दुःखादि का भोका कहा जाता है । सांख्यमत के वादमहार्णव में भी कहा है:
. *धुद्धिदर्पणसंक्रांतमर्थप्रतिक्विकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य नत्वात्मनोविकारापत्तिरिति । तथा कपिल का शिष्य प्रासुरि भी कहता है
. * बुद्धिरूप दर्पण में पड़ने वाला पदार्थों का प्रतिविम्ब दूसरे दर्पण सदृश पुरुष में प्रतिविम्वित होता हैं । इस बुद्धि के प्रतिविम्ब का पुरुष मे प्रतिबिम्बित होना-झलकना ही पुरुष का भोग है । इसी से उस को भोक्ता कहते है । आत्मा में इस से कोई विकार नही होता ।