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जैनतत्त्वादर्श मूलप्रकृतिरविकृति महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो, न प्रकृति ने विकृतिः पुरुषः ॥
[कारिका ३] अर्थः-मूल प्रकृति अविकृति है, महत् प्रादिक सात प्रकृति विकृति उभयरूप हैं, तथा षोडशक गण केवल विकारविकृति ही हैं; और पुरुष न प्रकृति है, न विकृति, अर्थात् न किसी को उत्पन्न करता है और न किसी से उत्पन्न होता है। तथा महदादिक जो प्रकृति का विकार हैं, सो व्यक्त हो कर फिर अव्यक्त भी हो जाते हैं, अर्थात् अनित्य होने से अपने स्वरूप से च्युत हो जाते है, अरु प्रकृति जो है, सो अविकृतिरूप है, अर्थात कदापि अपने स्वरूप से भ्रष्ट नहीं होती । तथा महदादि अरु प्रकृति का स्वरूप सांख्यमत वाले ऐसे मानते हैं:-हेतुमत, अनित्य, अव्यापक, सक्रिय, अनेक, प्राश्रित, लिग, सावयव, और परतंत्र तो व्यक्त-महदादिक है । इन से विपरीत प्रकृति है । इस का तात्पर्य यह है, कि महदादिक-१. हेतुमत्-कारण वाले हैं, अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, २. अनित्य- उत्पत्ति धर्मवाले हैं, ३. अव्यापी-सर्वगत नहीं हैं, ४. सक्रियसव्यापार-अध्यवसाय आदि क्रिया वाले हैं, ५. अनेक-तेवीस * हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिंगम् । सावयवं परतंत्र, व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥ [सां० स०, का० १०]