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चतुर्थ परिच्छेद
*विविक्तेदृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते । प्रतिबिंवोदयः स्वच्छे, यथा चन्द्रमसोऽम्भसि ॥
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तथा सांख्याचार्य विध्यवासी तो आत्मा को ऐसे भोक्ता कहता है
: पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा ॥
तथा वह आत्मा, "नित्यचिदाभ्युपेतः" - नित्य जो चित्चेतना, उस करके युक्त अर्थात् नित्य चैतन्य स्वरूप है । इस कहने से यह सिद्ध हुआ कि पुरुष ही चैतन्य स्वरूप है, ज्ञान नहीं। क्योंकि वह ज्ञान बुद्धि का धर्म है । तथा 'पुमान्' यह एक वचन जाति की अपेक्षा से है, वैसे आत्मा तो
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* जिस प्रकार स्वच्छ जल मे पडने वाला चन्द्रमा का प्रतिविम्ब जल का हो विकार है, चन्द्रमा का नही । उसी प्रकार आत्मा मे बुद्धि का प्रतिविम्ब पढ़ने से, उस मे जो भोक्तृत्व है, वह मात्र बुद्धि का विकार है, पुरुष -- आत्मा का नही । आत्मा तो वस्तुतः निर्विकार ही है ।
4 जैसे जपाकुसुम के संयोग से स्फटिक रत्न लाल प्रतीत होता है । उसी प्रकार यह अविकारी चेतन - आत्मा, सन्निधान से अचेतन मन को अपने समान चेतन बना लेता है । तब इस में भोक्तृत्व का अभिमान होने लगता है ।